विश्व योग दिवस पर विशेष
योग साधनाओं के क्रम से प्राप्त निर्वाण महेश्वेर पद कहा जाता है उस निर्वाण का हेतु रूद्र का ज्ञान हो जाना ही है और वह ज्ञान उन्हीं की कृपा से होता है | जो सभी इंद्रियों को नियंत्रित करके उस ज्ञान से पापों को जला डालता है , इंद्रियों की वृतियों पर नियंत्रण रखने वाले उस प्राणी को योग की सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है | चित्त की वृतियों का नियंत्रण ही योग है | योग के आठ अंगों का अनुष्ठान करने से, उनको आचरण में लेने से चित्त के मल का अभाव होकर वह सर्वथा निर्मल हो जाता है | यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि ये आठ योग के अंग हैं!
यम
अहिंसा, सत्य, अस्तेय(चोरी न करना), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह(संग्रह का अभाव) ये पांच यम हैं |
१) अहिंसा – मन, वाणी, और शरीर से किसी प्राणी को किसी प्रकार का दुःख न देना अहिंसा है, परदोष दर्शन का सर्वथा त्याग इसी के अंतर्गत है |
२) सत्य – इन्द्रिय और मन से प्रत्यक्ष देखकर, सुनकर अनुमान करके जैसा अनुभव किया हो, ठीक वैसा का वैसा ही भाव प्रकट करने के लिए प्रिय और हितकर तथा दूसरों को उद्वेग उत्त्पन्न न करने वाले जो वचन बोले जाते हैं, उनका नाम सत्य है |
३) अस्तेय – दूसरे के स्वत्व का अपहरण करना, छल से या अन्य किसी उपाय से अन्याय पूर्वक अपना बना लेना अस्तेय है |
४) ब्रह्मचर्य – मन, वाणी और शरीर से होने वाले सब प्रकार के मैथुनों का सब अवस्थाओं में सदा त्याग करके सब प्रकार से वीर्य की रक्षा करना ब्रह्मचर्य है|
५) अपरिग्रह – अपने स्वार्थ के लिए ममता पूर्वक धन, संपत्ति और भोग-सामग्री का संचय करना परिग्रह है तथा इसके अभाव का नाम अपरिग्रह है |
यमों का वर्णन करके अब नियमों का वर्णन करते हैं |
नियम
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर शरणागति ये पांच नियम हैं |
१) शौच – जल, मिट्टी के द्वारा शरीर, वस्त्र और मकान आदि के मल को दूर करना बाह्य शुद्धि है इसके अलावा अपने वर्णाश्रम और योग्यता के अनुसार न्यायपूर्वक धन को और शरीर निर्वाह के लिए आवश्यक अन्न आदि पवित्र वस्तुओं को प्राप्त करके उनके द्वारा शास्त्रानुकूल शुद्ध भोजनादि करना तथा सबके साथ यथायोग्य पवित्र बर्ताव करना यह भी बाहरी शुद्धि के अन्तर्गत हैं | जप, तप और शुद्ध विचारों के द्वारा एवं मैत्री आदि की भावना से अन्तःकारण के राग द्वेष आदि मलों का नाश करना भीतर की पवित्रता है |
२) संतोष – कर्त्तव्य का पालन करते हुए प्रारब्ध के अनुसार अपने आप जो कुछ प्राप्त हो एवं जिन अवस्था और परिस्थति में रहने का संयोग प्राप्त हो जाये, उसी में संतुष्ट रहना और किसी प्रकार की कामना या तृष्णा न करना संतोष है |
३) अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक और मानसिक अधिक से अधिक कष्ट प्राप्त हो, उसे सहर्ष सहन करना उसका नाम तप है | निष्काम भाव से इस तप का पालन करने से मनुष्य का अन्तः करण अनायास ही शुद्ध हो जाता है|
४) स्वाध्याय – जिनसे अपने कर्तव्य और अकर्तव्य का बोध हो सके, ऐसे वेद, शास्त्र, महापुरुषों के लेख आदि का पठन पाठन और भगवान् के ॐ कार आदि किसी नाम का, गायत्री का और किसी भी इष्ट देवता के मंत्र का जप स्वाध्याय है | इसके अलावा अपने जीवन के अध्ययन का नाम भी स्वाध्याय है|
५) ईश्वर प्रणिधान – ईश्वर के शरणापन्न हो जाने का नाम ईश्वर प्रणिधान है | समस्त कर्मों को भगवान् के समर्पण कर देना, अपने को भगवान् के हाथ का यन्त्र बनाकर जिस प्रकार वह नचावे वैसे ही नाचना, उसकी आज्ञा का पालन करना, उसी में अनन्य प्रेम करना ये सभी ईश्वर प्रणिधान के ही अंग हैं |
आसन
निश्चल सुखपूर्वक बैठने का नाम आसन है | जिसपर बैठकर साधन किया जाता है उसका नाम भी आसन है अतः वह भी स्थिर और सुखपूर्वक बैठने लायक होना चाहिए | प्रयत्न की शिथिलता से और अनंत में मन लगाने पर आसन की सिद्धि होती है अर्थात शरीर को सीधा और स्थिर करके सुखपूर्वक बैठ जाने के बाद शरीर सम्बन्धी सब प्रकार की चेष्टाओं का त्याग कर देना ही प्रयत्न की शिथिलता है इससे और परमात्मा में मन लगाने से आसन की सिद्धि होती है |
आसन की सिद्धि हो जाने पर शरीर पर सर्दी गर्मी आदि द्वंदों का प्रभाव नहीं पड़ता, शरीर मे उन सबको बिना किसी प्रकार की पीड़ा के सहन करने की शक्ति आ जाती है |
प्राणायाम
आसन की सिद्धि के बाद श्वास और प्रश्वास की गति का रूक जाना प्राणायाम है | प्राणवायु का शरीर में प्रविष्ट होना श्वास है और बाहर निकलना प्रश्वास है | इन दोनों की गति की गति का रूक जाना ही प्राणायाम के लक्षण हैं |
जैसे जैसे मनुष्य प्राणायाम का अभ्यास करता है वैसे ही वैसे उसके संचित कर्म संस्कार और अविद्या आदि क्लेश दुर्बल होते चले जाते हैं | ये कर्म संस्कार और अविद्या आदि क्लेश ही ज्ञान का आवरण हैं | इस ज्ञान के आवरण के कारण ही मनुष्य का ज्ञान ढाका हुआ रहता है | अतः वह मोहित हुआ रहता है | जब यह पर्दा दुर्बल होते होते सर्वथा क्षीण हो जाता है, तब साधक का ज्ञान सूर्य की भांति प्रकाशित हो जाता है | इसीलिए साधक को प्राणायाम का अभ्यास आवश्य करना चाहिए |
प्रत्याहार
प्राणायाम का अभ्यास करते करते मन और इन्द्रियाँ शुद्ध हो जाती हैं उसके बाद इन्द्रियों की बाह्य वृतियों को सब और से समेट कर मन में विलीन करने के अभ्यास का नाम प्रत्याहार है | जब साधन काल मे साधक इन्द्रियों के विषयों का त्याग करके चित्त को अपने ध्येय मे लगाता है, उस समय जो इन्द्रीओं का विषयों की ओर न जाकर चित्त में विलीन सा हो जाना है, यह प्रत्याहार शिद्ध होने की पहचान है |यदि उस समय भी इन्द्रियाँ पहले के अभ्यास से इसके सामने बाह्य विषयों का चित्र उपस्थित करती हैं तो समझना चाहिए की प्रत्याहार नहीं हुआ | प्रत्याहार शिद्ध हो जाने पर योगी की इन्द्रियाँ उसके सर्वथा वश में हो जाती हैं , उनकी स्वतंत्रता का सर्वथा अभाव हो जाता है | प्रत्याहार की शिद्धि हो जाने के बाद इन्द्रिय विजय के लिए अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती है |
धारणा
नाभिचक्र, ह्रदय-कमल आदि शरीर के भीतरी देश हैं और आकाश या सूर्य-चन्द्रमा आदि देवता या कोई भी मूर्ति तथा कोई भी पदार्थ बहार के देश हैं, उनमे से किसी एक देश में चित्त की वृति को लगाने का नाम धारणा है |
ध्यान
किसी ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाय, उसी में चित्त का एकाग्र हो जाना अर्थात ध्येय मात्र की एक ही तरह की वृति का प्रवाह चलाना, उसके बीच में किसी भी दुसरे वृति का न उठाना ध्यान है!
समाधि
ध्यान करते करते जब चित्त ध्येयकार में परिणत हो जाता है, उसके अपने स्वरुप का अभाव सा हो जाता है उसको ध्येय से भिन्न उपलब्धि नहीं होती उस समय उस ध्यान का ही नाम समाधि हो जाता है |
संयम
किसी एक ध्येय पदार्थ में धारण ध्यान और समाधि ये तीनों होने से संयम कहलाता है |
आचार्य कल्याण मित्र
पावन महाराज