लोकमंगल की भावना से संस्कृत जीवनशैली का अभ्यास करने के लिए तथा उसके विकास और संवर्धन के लिए वैदिक कर्मकांडों और अनुष्ठानों का आयोजन समस्त सनातन समूहों द्वारा किया जाता रहा है और अनंत काल तक किया जाता रहेगा। संस्कृति क्षरण को रोकने के लिए यह क्रम निरंतर और गुणवत्तापूर्ण तरीके से बना रहे यह अत्यंत आवश्यक है। वास्तव में सामूहिक या व्यक्तिगत रूप से रूप से आयोजित किये जाने वाले ये अनुष्ठान समस्त जगत की समग्र समृद्धि को प्रदर्शित करने का माध्यम है। यह इस मंगलमय जीवन की समस्त उपलब्धि के सदुपयोग का प्रतीक है। यह मैत्रीपूर्ण संबंधों का प्रबोधन करने वाला है। यह सामूहिक प्रयासों द्वारा समाज को विभूतियों से सुसज्जित करने का सूत्र है।
परंतु इन सबके विपरीत एक तथ्य यह भी है कि वैदिक कर्मकांड और दैवीय अनुष्ठान आत्म मुक्ति या आत्मसाक्षात्कार के लिए प्रयाप्त नहीं हैं। भावात्मक रूप से जीव भावत्रैयी अवस्थाओं की गहरी यात्राओं के क्रम में ही साक्षात्कार का अनुभव प्राप्त कर पाता है।
यह भी एक तथ्य है कि कोई भी क्रम उन्हें विवशताओं में बंध नहीं करता बल्कि भावात्मक रूप से मुक्तिबोध के विभिन्न स्तरों का दर्शन उपलब्ध कराता है। पशुभाव के अंतर्गत आयोजित कर्मकांड, पाशों से मुक्ति का भाव वीरभाव या फिर ब्रह्मलीन अद्वैत दिव्य भाव सभी मनुष्यों को उत्कृष्ट बनाने के ही माध्यम हैं।
उपरोक्त वर्णित तथ्यों से अलग वर्तमान में कुछ ऐसे भी महामानव इस धरा पर विचरण कर रहे हैं जो जनमानस की भाव आधारित अवस्थाओं और सनातन मुक्तिमार्ग के प्रारूपों से अनभिज्ञ होते हुए भी मुक्तिबोध का रसास्वादन कराने का दावा प्रस्तुत करते हैं। सनातन संस्कृति एवं उसकी लोककल्याणकारी व्यवस्थाओं और क्रियाविधि का गहन अध्ययन किये बिना ही स्वयं को जन्म से ब्राह्मण मानने वाले वे अहंकारी मनुष्य विधि ग्रंथों, स्मृतियों, शास्त्रों का अनुचित संदर्भ रखकर जनमानस को भयाक्रांत कर रहे है।
आधुनिक युग में भी इस प्रकार का भय सामाजिक प्रकल्पों में स्पष्ट रूप से व्याप्त है। इसलिए मैं इस लेख के माध्यम से इस धर्मसंगत जागृति का प्रसार भारतीय जनमानस के मध्य करना चाहता हूँ। मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि विधि ग्रंथ, स्मृतियाँ एवं अन्य शास्त्र जनमानस को भयभीत करने के हेतु नहीं हैं बल्कि ये तो निर्भयता प्रदान करते हैं। मैं इस तथ्य को बड़ी ही जम्मेवारी से कह रहा हूँ की उन अनैतिक मनुष्यों के द्वारा प्रचारित किये गए दैवीय प्रकोप से प्रभावित होकर आयोजित किये गए अनुष्ठानों में जीवन का कोई निदान निहित नहीं है। वास्तव में तत्वज्ञान एवं श्रद्धा से पूर्ण होकर पशु से वीर एवं वीर से दिव्य होने की प्रक्रियाओं में भागीदारी सुनिश्चित करके ही जीवन संदर्भों का समाधान संभव है।
यहाँ यह उल्लेख करना अति आवश्यक है की सांसारिक आशक्ति में मोह रूपी अष्ट पाशों से बंधे जीवों को “पशु” कहते हैं। भाव परिष्कार की प्रक्रिया में कुछ साधक अद्वैत ज्ञान का आभास पाकर प्रयत्न पूर्वक उन अष्ट पाशों को भंग कर डालते हैं उन्हें “वीर” कहते हैं। तदुपरान्त ये वीर साधक क्रमशःअद्वैत ज्ञान की और अग्रसर हो अपने उपास्य के साथ एकात्म का अनुभव करते हुए सहज रूप उस “अद्वैत ज्ञान” को अपना लेते हैं “दिव्य” कहलाते हैं।
इस प्रकार ये तीन प्रकार के साधक उत्तरोतर श्रेष्ट होते हैं। इन तीनों की अवस्थाओं को क्रमशः पशु भाव, वीर भाव, तथा दिव्या भाव कहते हैं। इसे “भावत्रय” भी कहते हैं।
घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति ये सभी पाश कहे गए हैं। जो मनुष्य जीवन साधना पथ पर इन पाशों को भंग कर श्रेष्ट अद्वैत ज्ञान को उसके निरंतर अनुशीलन एवं क्रमिक साधना द्वारा प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते है “वीर” कहलाते है।
ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक हैं। हमे जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है। आत्मा ब्रह्म से अलग नहीं है। ब्रह्म ही आत्मा है अज्ञान इन्हें दो बनाए रहता है। ज्ञान प्राप्त होने पर आत्मा अपने मूल स्वरूप ब्रह्म को प्राप्त कर लेती है। यही सनातन “अद्वैत ज्ञान” है।
इन विषयों पर प्रकाश डालने का मेरा उद्देश्य ब्राह्मणों के प्रति दुर्भावना फैलाना नहीं है और न ही दैवीय अनुष्ठानों के आयोजन से अलगाव की मेरी कोई मंशा है। मेरा उद्देश्य केवल इस सत्य के उद्बोधन का है कि वैदिक कर्मकांडों और दैवीय अनुष्ठानों के आयोजन मानसिक भय के धरातल पर संम्पन्न नहीं होते और न ही ये वर्ण व्यवस्था के अनुशीलन को बाध्य होते हैं।
जो ब्रह्म का ज्ञाता है वही ब्राह्मण है। वही सुसंस्कृत व्यक्ति संस्कृति को उत्कृष्टता के परम लक्ष्यों तक पहुँचा सकता है। वह कभी भय उत्पन्न नहीं करता बल्कि शीतलता एवं शांति प्रदान करता है। इतिहास साक्षी है धर्म, संस्कॄति, कला तथा शिक्षा के क्षेत्र में इनका योगदान अपरिमित है।
एक अकाट्य सत्य यह भी है की किसी भी वर्ण का मनुष्य ब्रह्मत्वा को प्राप्त कर सकता है एवं दैवी अनुष्ठानों को संम्पन्न कर सकता हैं। इस तथ्य की पुष्टि के सन्दर्भ में यह कह सकता हूँ की वेदों के संकलक और रामायण के रचनाकार शूद्र थे न की ब्राहमण। विश्वकल्याण हेतु विश्वामित्र ने भी ब्रह्मत्वा को प्राप्त किया था एवं कई बड़े अनुष्ठानों को संम्पन करवाया था।
विधि ग्रंथों, स्मृतियों, शास्त्रों के द्वारा दैवी आतंक का प्रसार करने वाले मनुष्य ब्राह्मण नहीं हो सकते हैं। यहाँ बताये गये पूजन अनुष्ठान मनुष्यों की भाव श्रद्धा एवं समृद्धि पर आधारित है इन अनुष्ठानों के प्रति मनुष्यों को बाध्य नहीं किया जा सकता।
आचार्य पावन महाराज