प्रकृति बोध एवं संरक्षण
विश्व वानिकी दिवस पर विशेष
‘प्रकृति बोध एवं संरक्षण’ ‘वसुधा कल्याण आश्रम परिवार” का मूल उद्देश्य है। हम चाहते हैं कि प्रत्येक मनुष्य ईश्वरीय गुणों से संपन्न हो जाए। प्रत्येक मनुष्य एक मानव के रूप मे नहीं बल्कि एक महामानव के रूप में प्रकृति में निवास करे। उसका संपूर्ण व्यक्तित्व सबल सहज और समर्थ हो। अस्वस्थ (स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से अशक्त) होकर जीने का अर्थ पाप ही हो सकता है। हम चाहते हैं कि मनुष्य अपने स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण इन तीनों रूपों के विकास को उसके चरम पर स्थापित कर सके।
पर क्या यह सब आज के प्राकृतिक परिवेश में संभव है? यहाँ हमारे द्वारा प्रकृति के विरुद्ध किये गये अनैतिक आचरणों के कारण पहले तो प्रकृति दूषित हुई और फिर वो हमें दूषित कर रही है। जिसके कारण हमारी सीमाएं संकुचित हो रही हैं हमारी क्षमताएं घटती जा रही है चाहे वो किसी भी क्षेत्र में हो। कुछ उदाहरणों द्वारा इसे समझा जा सकता है। शास्त्रों में वर्णित सतयुग की हमारी उम्र सीमा तब हजारों वर्ष थी जो अब घटकर १०० या फिर उससे भी कम रह गई है और लगातार घटती ही जा रही है। स्त्रियों और पुरुषों में सामान रूप से प्रजनन क्षमता का ह्वास हुआ है। अपनी आध्यात्मिक सत्ता को हमने तहस नहस कर रखा है। सतयुग में लोग स्वस्थ और पूर्णत्व को प्राप्त होकर अपने सर्वांगीण विकास(आध्यात्मिक) में सफल होते थे पर हमारी क्षमताएं लगातार घटती जा रहीं हैं। व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक रूप से हम पतन के रास्ते पर हैं। सम्पूर्ण विश्व को अलग अलग तरह की महामारीयों की चपेट में है। हम ना तो हम अपना स्थूल विकास कर पा रहें हैं और ना सूक्ष्म विकास की तरफ अग्रसर हैं। कारण क्या है इसकी छानबीन आवश्यक है।
इस जगत की उत्त्पत्ति पंचमहाभूतों अर्थात पृथ्वी, जल, तेज़, आकाश, वायु से होती है। हमने इन पंच महाभूतों को ही दूषित कर दिया है जो हमारे स्थूल शरीर सुक्ष्म शरीर एवं मूल प्रकृति रूप कारण शरीर और पर्यावरण के निर्माता हैं। उनके ही मूल से हम संसार में दृष्टी गोचर हैं। ब्रह्माण्ड का प्रत्येक स्थान स्थूल, सुक्ष्म एवं कारण तत्वों के क्रमिक आवरण से घिरा होता है | उसमे स्थूल तत्व जो सभी को खुली आँखों से दिखायी पड़ते हैं परिवेश की सृष्टी करते हैं। इस स्थूल आवरण के अलावा प्रत्येक स्थान में पर्यावरण का सूक्ष्म आवरण होता है। यह स्थिति उन पंचमहाभूतों के समन्वय और संतुलन पर निर्भर करती है। इस समन्वय व संतुलन की स्थिति कितनी सवरी या बिगड़ी है इसी के सत्प्रभाव या दुष्प्रभाव हमें मानव शरीर और जिस परिवेश में वो रहता है वहाँ दिखलाई पड़ते हैं। पर्यावरण यदि असंतुलित है तो वहां अनायास ही शारीरिक बीमारियाँ एवं मनोरोग पनपते हैं।
सभी जानते हैं प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन दोहन हुआ है। मानवीय महत्वकांक्षा की चपेट में आकर जीव जंतुओं की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं और कई विलुप्ति की कगार पर हैं। पुरे विश्व में जंगलों का प्रतिशत काफी कम रह गया है। जिसके कारण प्राकृतिक संकटों के बादल गहराते चले गए हैं। पर्यावरण संकट मौसम के संकट भाति भाति की बीमारियाँ, महामारियाँ, आपदाए इंसानी जिंदगी को दबोचने की तैयारी में हर वक्त लगी रहती है। स्वार्थ लिप्सा से ग्रसित इस अहंकारी मानव को मनोरोगों ने धर पटका है।
प्रकृति ने जीवधारियों के निर्वाह की सुविधा स्वेक्षा पूर्वक प्रदान की है ऐसा न होता तो जीवन के लिए अपना अस्तित्व बनाए रखना अपनी प्रगति के साधन सामग्री उपलब्ध कर सकना ही संभव नहीं होता। तब उन्नत्ति करने और समग्र समर्थ होने की बात कैसे बनती? इतने पर भी यह मानकर चलना होगा की जीवधारियों का अपना निजी स्वभाव अग्रगमन के लिए अभ्युदय के लिए अनवरत प्रयास करना है। इसी को इच्छा, आकांक्षा और अभिलाषा कहते हैं। इसे अन्तःप्रेरणा भी कहा जाता है यही हम जीवधारियों की मौलिक विशेषता है जिससे वह प्रगति पथ पर चलते चलते इस स्थिती तक आ पहुँचा है।
मनुष्य इस सृष्टि के आरंभ की तुलना में असंख्य गुना अधिक परिष्कृत हैं आदिमकाल की उन्गढ़ स्थिति और आज की स्थिति का कोई मुकाबला नहीं है प्रकृति की दिशा में जब उसके चरण आगे बढे तब उसने कृषि पशुपालन जैसे उद्योग सीखे। वस्त्र निवास अग्नि प्रज्वलन जैसी विधि व्यवस्थाओं से अवगत हो गया बोलना लिखना सीख गया तथा अपने अपने समुदायों के प्रथा प्रचलनों का अभयस्त हो गया। भौतिक प्रगति इसी दिशी में प्रगतिशील होती चली गई | विज्ञान, यंत्रीकरण, अर्थशास्त्र, शासनतंत्र के सहारे वह काफी आगे जा चूका है पर सभी प्रकार की उन्नति के बावजूद प्रकृति परायणता की भावना अपने निम्नतम स्तर है। जीवधारी सिर्फ अपने लिए जी रहे हैं वे सिर्फ भौतिक सुखो की पूर्ति में संलग्न हैं और प्रकृति का बड़ी तेज़ी से दोहन कर रहे हैं और दुस्प्रभावों की चर्चा हम कर चुके हैं।
हम मनुष्य ईश्वरीय गुणों को प्राप्त कर सकतें हैं उन दुष्प्रभावों से बच सकतें हैं जो हमारे द्वारा प्रकृति के विरुद्ध किये गए अनैतिक आचरणों के कारण उत्पन्न हुए हैं। ईश्वर प्रकृति और जीव ये तीनों अनादि सत्ताएँ हैं। हम सब ईश्वर की संतान हैं एवं प्रकृति हमारी माँ है। हमें इसकी रक्षा करनी चाहिये।
इस कार्य (पंचमहाभूतों को परिष्कृत करने) का सबसे अच्छा साधन धरती पर फैले वनक्षेत्र ही हैं जो सभी तरह से उन पंचतत्वो को शोधित करते रहते हैं। इस तथ्य का संपूर्ण वैज्ञानिक आधार भी है। अतः हमें उनके संरक्षण एवं संवर्धन के लिए हर संभव प्रयास करना है हमें ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने होंगे क्यों की पेड़ लगाने से ही धरती पर हो रहे प्रदुषण को कम किया जा सकता है और या धरती हम जीवों के रहने लायक बनी रहेगी। इसके लिए हमें अपने आस पास से शरुआत करनी होगी। इस कार्य को करने के लिए हम दृढ़ संकल्पित हैं।
आचार्य कल्याण मित्र
पावन महाराज
संस्थापक सह अध्यक्ष
वसुधा कल्याण आश्रम
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