छठ महापर्व पर विशेष
संस्कृति के समग्र विकास के लिए लोक जीवनशैली का आलिंगन अत्यंत आवश्यक है। हम भाग्यशाली हैं कि हम उन महामानवों के पीढ़ियों के रूप में इस पावन धरा को मातृभूमि के रूप में पूजने का अधिकार रखते हैं। यह सत्य है कि हमारे पूर्वजों ने इस विषय को बेहद संजीदगी से समझते हुए लोक परम्पराओं के माध्यम से अस्तित्व को और ज्यादा जीवंत रखने की गूढ़ विधियों को अपने अनुभव में उतारा है और पीढ़ियों को उपहार स्वरुप देते भी आये हैं। उन्होंने हमें सिखलाया है कि वैभवशाली लोक परम्पराओं के माध्यम से हम इस स्तर तक जीवंत रहते हैं कि संघर्ष और प्रतिस्पर्धी भावनाओं से मुक्त रहकर समग्र के प्रति करुणा, दया, मैत्री और समता से पूर्ण भावनाओं को अपने अंतःकरण में स्थापित कर सकते हैं।
एक ऐसी जीवंतता जो हमें गंभीर नहीं बल्कि सहज बनाती है। ज्ञातियों एवं जातियों के भेद से ऊपर रखती है। पुरोहित, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बोध से अलग संस्कृत संस्कारों को पूर्ण करने का सामान अधिकार देती है। यह हमें सिखाती है कि आपका परिवार केवल चार दीवारों या एक घर के भीतर नहीं है बल्कि उस परिवार का हिस्सा समस्त वसुधा है। पेड़, पौधे, नदियां तालाब, पर्वत, वन, कानन, यह भूमि, वायु और वृहद आकाश सबकुछ एक परिवार के रूप में हमसे संवाद एवं स्नेह रखते हैं। विश्व बंधुत्व की व्यापक धुरी पर सहज ही खड़ा होने का साहस इस संस्कृति ने ही तो हमें दिया है।
यह जीवन को ऊर्ध्वगामी भावों से सिंचती है। सभ्यताओं के द्वंद के बीच एक ऐसी संस्कृति जो रूढ़ियों का ध्वंस करते हुए पावन अवसरों पर गाये जाने वाले मंगल गीतों में अपने परिवार के लिए सिमटी-सकुचाई रहने वाली बेटी नहीं बल्कि “रुनकी झुनकी बेटी” मांगकर मातृशक्ति की गरिमा का गान करते हुए जीवनशैली को तृप्त करती है।
इन लोक संस्कारों में निराशा नहीं है बल्कि इन्होंने तो सदा ही बिना कोई भेद किये व्यष्टि और समष्टि दोनों को को हर्ष, उल्लास और उत्सव के रसों का सोपान कराया है। आशाओं को अस्तित्व से जोड़ा है। समेकित विकास का साहसिक विचार पर्व-त्योहारों के माध्यम से साकार कर देना वर्तमान में ज्ञान और विज्ञान में स्वयं को श्रेष्ठ मनाने वाले आधुनिक मनुष्यों के लिए विचारणीय अवश्य है।
व्यवहार में भावुकता ज्यादा है और अंतःकरण का विस्तार व्यक्ति से व्यक्ति तक ही नही बल्कि व्यक्ति से समष्टि तक है। यह भेदभाव से मुक्त हमें सदा एक माँ की तरह जोड़ कर रखना चाहती है और बिखरने नहीं देती। बिना पुरोहित के पूजा तथा सूप और दउरा बनाने वालों को उनकी महत्ता का बोध करने वाली यह संस्कृति विरासत में हमें मिली है।
इस संस्कृति की व्यापकता को समझकर इसको संरक्षित करने की बात अहंकारपूर्ण है और अतिशयोक्ति जैसी प्रतीत होती है।श्रेष्ठ मार्ग इसके आश्रयभूत हो जाना है। कभी भाव से यह प्रयास करके देखिए, अस्ताचलगामी सूर्य को प्रणाम करना उसकी महत्ता के प्रति एक विनीत अनुबोध जागृत करता है, पर वह अहंकार जो हमें झुककर डूबते से अशीष और अनुभव लेने से रोकता है उसे यह संस्कृति सहज ही लील जाती है और दर्शन एवं ज्ञान के व्यापक द्वार खोलती है।
जय छठी मईया
सूर्योपासना व लोक आस्था का पावन छठ महापर्व की आपको सपरिवार हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं।
सादर
आचार्य पावन महाराज